Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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विनय के मन में ऐसा उद्वेग हुआ कि इस वक्त सोफ़िया सामने आ जाती, तो उसे धिक्कारता-यही मेरे अनंत हृदयानुराग का उपहार है?तुम्हारे ऊपर मुझे कितना विश्वास था, पर अब ज्ञात हुआ कि वह तुम्हारी प्रेमक्रीड़ा मात्र थी। तुम मेरे लिए आकाश की देवी थीं। मैंने तुम्हें एक स्वर्गीय आलोक, दिव्य ज्योति समझ रखा था। आह! मैं अपना धर्म तक तुम्हारे चरणों पर निछावर करने को तैयार था। क्या इसीलिए तुमने मुझे ज्वालाओं के मुख से निकाला था? खैर, जो हुआ, अच्छा हुआ। ईश्वर ने मेरे धर्म की रक्षा की, यह व्यथा भी शांत ही हो जाएगी। मैं तुम्हें व्यर्थ ही कोस रहा हूँ। तुमने वही किया, जो इस परिस्थिति में अन्य स्त्रियाँ करतीं। मुझे दु:ख इसलिए हो रहा है कि मैं तुमसे कुछ और ही आशाएँ रखता था। यह मेरी भूल थी। मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं था। मुझमें वे गुण कहाँ हैं, जिनका तुम आदर कर सकतीं; पर यह भी जानता हूँ कि मेरी जितनी भक्ति तुम में थी और अब भी है, उतनी शायद ही किसी-किसी में हो सकती है। क्लार्क विद्वान,चतुर, योग्य गुणों का आगार ही क्यों न हो, लेकिन अगर मैंने तुम्हें पहचानने में धोखा नहीं खाया है, तो तुम उसके साथ प्रसन्न न रह सकोगी।
किंतु इस समय उन्हें इस नैराश्य से कहीं अधिक वेदना इस विचार से हो रही थी कि मैं माताजी की नजरों में गिर गया-उन्हें कैसे मालूम हुआ? क्या सोफी ने उन्हें मेरा पत्र तो नहीं दिखा दिया? अगर उसने ऐसा किया है, तो वह मुझ पर इससे अधिक कठोर आघात न कर सकती थी। क्या प्रेम निठुर होकर द्वेषात्मक भी हो जाता है? नहीं, सोफी पर यह संदेह करके मैं उस पर अत्याचार न करूँगा। समझ गया, इंदु की सरलता ने यह आग लगाई है। उसने हँसी-हँसी में कह दिया होगा। न जाने उसे कभी बुध्दि होगी या नहीं। उसकी तो दिल्लगी हुई, और यहाँ मुझ पर जो बीत रही है, मैं ही जानता हूँ।

यह सोचते-सोचते विनय के मन में प्रत्याघात का विचार उत्पन्न हुआ। नैराश्य में प्रेम भी द्वेष का रूप धारण कर लेता है। उनकी प्रबल इच्छा हुई कि सोफ़िया को एक लम्बा पत्र लिखूँ और उसे जी भरकर धिक्कारूँ। वह इस पत्र की कल्पना करने लगे-त्रियाचरित की कथाएँ पुस्तकों में बहुत पढ़ी थीं, पर कभी उन पर विश्वास न आता था। मुझे यह गुमान ही न होता था कि स्त्री , जिसे परमात्मा ने पवित्र, कोमल तथा देवोपम भावों का आगार बनाया है, इतनी निर्दय और इतनी मलिन हृदय हो सकती है; पर यह तुम्हारा दोष नहीं, यह तुम्हारे धर्म का दोष है, जहाँ प्रेम-व्रत का कोई आदर्श नहीं है। अगर तुमने हिंदू-धर्म-ग्रंथों का अधययन किया है, तो तुमको एक नहीं, अनेक ऐसी देवियों के दर्शन हुए होंगे, जिन्होंने एक बार प्रेम-व्रत धारण कर लेने के बाद जीवन पर्यंत परपुरुष की कल्पना भी नहीं की। हाँ, तुम्हें ऐसी देवियाँ भी मिली होंगी, जिन्होंने प्रेम-व्रत लेकर आजीवन अक्षय वैधव्य का पालन किया। मि. क्लार्क की सहयोगिनी बनकर तुम एक ही छलाँग में विजित से विजेताओं की श्रेणी में पहुँच जाओगी, और बहुत सम्भव है, इसी गौरव-कामना ने तुम्हें यह वज्राघात करने पर आरूढ़ किया हो; पर तुम्हारी आँखें बहुत जल्द खुलेंगी और तुम्हें ज्ञात होगा कि तुमने अपना सम्मान बढ़ाया नहीं, खो दिया है।

इस भाँति विनय ने दुष्कल्पनाओं की धुन में दिल का खूब गुबार निकाला। अगर इन विषाक्त भावों का एक छींटा भी सोफ़िया पर छिड़क सकता, तो उस विरहिणी की न जाने क्या दशा होती। कदाचित् उसकी जान ही पर बन जाती। पर विनयसिंह को स्वयं अपनी क्षुद्रता पर घृणा हुई-मेरे मन में ऐसे कुविचार क्यों आ रहे हैं। उसका परम कोमल हृदय ऐसे निर्दय आघातों को सहन नहीं कर सकता। उसे मुझसे प्रेम था। मेरा मन कहता है कि अब भी उसे मेरे प्रति सहानुभूति है। मगर मेरे ही समान वह भी धर्म, कर्तव्‍य, समाज और प्रथा की बेड़ियों में बँधी हुई है। हो सकता है कि उसके माता-पिता ने उसे मजबूर किया हो और उसने अपने को उनकी इच्छा पर बलिदान कर दिया हो। यह भी हो सकता है कि माताजी ने उसे मेरे प्रेम-मार्ग से हटाने के लिए यह उपाय निकाला हो। वह जितनी ही सहृदय हैं, उतनी ही क्रोधशील भी। मैं बिना जाने-बूझे सोफ़िया पर दोषोरोपण करके अपनी उच्छृंखलता का परिचय दे रहा हूँ।
इसी उद्विग्न दशा में करवटें बदलते-बदलते विनय की आँखें झपक गईं। पहाड़ी देशों में रातें बड़ी सुहावनी होती हैं। एक ही झपकी में तड़का हो गया। मालूम नहीं वह कब तक पड़े सोया करते; लेकिन पानी के झींसे मुँह पर पड़े, तो घबड़ाकर उठ बैठे। बादल घिरे हुए थे और हलकी-हलकी फुहार पड़ रही थी। जसवंतनगर चलने का विचार करके उठे थे कि कई आदमियों को घोड़े भगाए अपनी तरफ आते देखा। समझे, शायद वीरपालसिंह और उनके साथी होंगे; पर समीप आए, तो मालूम हुआ कि रियासत की पुलिस के आदमी हैं। डाकिया उनके पास ही सोया हुआ था, पर उसका कहीं पता न था, वह पहले ही उठकर चला गया था।
अफसर ने पूछा-तुम्हारा ही नाम विनयसिंह हैं?
'जी हाँ।'
'कल रात को तुम्हारे साथ कई आदमियों ने यहाँ पड़ाव डाला था?'
'जी नहीं, मेरे साथ केवल यहाँ के डाकघर का एक डाकिया था।'
'तुम वीरपालसिंह को जानते हो?'
'इतना ही जानता हूँ कि वह मुझे रास्ते में मिल गया, वहाँ से कहाँ गया, यह मैं नहीं जानता।'
'तुम्हें यह मालूम था कि वह डाकू है?'
'उसने यहाँ के राजकर्मचारियों के विषय में इसी शब्द का प्रयोग किया था।'
'इसका आशय मैं यह समझता हूँ कि तुम्हें यह बात मालूम थी।'
'आप इसका जो आशय चाहें, समझें।
'उसने यहाँ से तीन मील पर सरकारी खजाने की गाड़ी लूट ली है और एक सिपाही की हत्या कर डाली है। पुलिस को संदेह है कि यह संगीन वारदात तुम्हारे इशारे से हुई है। इसलिए हम तुम्हें गिरफ्तार करते हैं।'
'यह मेरे ऊपर घोर अन्याय है। मुझे उस डाके और हत्या की जरा भी खबर नहीं है।'
'इसका फैसला अदालत से होगा।'
'कम-से-कम मुझे इतना पूछने का अधिकार तो है कि पुलिस को मुझ पर यह संदेह करने का क्या कारण है?'
'उसी डाकिए का बयान है, जो रात को तुम्हारे साथ यहाँ सोया था।'
विनय ने विस्मित होकर कहा-यह उसी डाकिए का बयान है!
'हाँ, उसने घड़ी रात रहे इसकी सूचना दी। अब आपको विदित हो गया होगा कि पुलिस आप-जैसे महाशयों से कितनी सतर्क रहती है।'
मानव-चरित्र कितना दुर्बोध और जटिल है, इसका विनय को जीवन में पहली ही बार अनुभव हुआ। इतनी श्रध्दा और भक्ति की आड़ में इतनी कुटिलता और पैशाचिकता!
दो सिपाहियों ने विनय के हाथों में हथकड़ी डाल दी, उन्हें एक घोड़े पर सवार कराया और जसवंतनगर की ओर चले।

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